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वह न रहा मेरे पास / केदारनाथ अग्रवाल
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वह न रहा मेरे पास जिसे होना चाहिए मेरे पास
वह न रहा आपके पास जिसे होना चाहिए
आपके पास
वह न रहा समाज के पास जिसे होना चाहिए
समाज के पास
बात ही ऐसी हुई कि मैं-आप और समाज
ज्ञान गुन-गौरव से, गरिमा से वंचित होते-होते,
अनिवार्यताओं से विमुख होते चले गए-
अनावश्यकताओं से चुम्बकित होते चले गए,
समता के स्थान पर
विषमता के फेर में पड़े-पड़े
चरित्र की चाल में हम सब तीनों-
डगर-डगर डगमगाते चलते चले गए,
न्याय के नाम पर अन्याय की
उपलब्धियाँ उपार्जित करते चले गए,
भरण-पोषण के लिए
तुच्छातितुच्छ अपहरण की
अवतारणा करते चले गए,
गुनाह के प्रवाह में प्रवाहित होते-होते
गुमराह होते-होते चले गए
अस्तित्व में अनस्तित्व का
अभियान ही अभियान
आयोजित करते चले गए।
रचनाकाल: ३०-०५-१९८६