वह भूल गई है दुःख जीना / अंकिता जैन
वह भूल गई है दुःख जीना
संवेदनाएँ भी
कि अब, बस एक पहिए में बिदी
कोई पन्नी सी हो गई है ज़िन्दगी
जो चक्के के साथ
बिना किसी ध्येय के
सभी दिशाओं में फड़फड़ाती रहती है।
वह समेटती है ख़ुद को हर सुबह बिस्तर से
मिटाती है सलवटें थकान की
बुझाती है सुकून की लौ
और जमा देती है
अपने अधूरे सपनों को
बकस के ऊपर दोहड़ के साथ
कि लौटकर शाम को ओढ़ लेगी फिर वही चादर सपनों की
जिसे ओढ़कर वह जी पाती है
एक और दिन
मर पाती है एक और रात
वह निकलती है लादकर पीठ पर
बालिश्त भर का गोश्त
जिसे मालिक उसके कहते हैं बच्चा
और दुलार लेते हैं दूर से
मगर वह नहीं दुलारती
क्योंकि नहीं होती फुरसत उसे
पसारने की आँचल और
बिसारने की वह फेहरिस्त
जो तैयार मिलती है उसे हर सुबह,
जिसे करना होता है ख़तम हर शाम
वह भूल गई है रोना, मचलना, ज़िद करना
कि अब,
बस एक कोयले से काली हो गई है ज़िन्दगी
जो जानती है, जलना
या
रच देना काला अंधियारा संसार छुअन भर से।