भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह मज़दूर / अनिल पाण्डेय
Kavita Kosh से
जिसमें उत्साह था अदम
सह चुका जो हर सितम
रक्त नलिकाएं भी
दौड़ लगा रही थी
चुस्ती फुर्ती के साथ
जो था समाज की राजनीति से
बहुत दूर
वह मज़दूर
फावड़ा लिए अपने कंधों पर
चला जा रहा था
वह निश्चिंत हो बेपनाह
समाज-समुदाय की
गन्दी कूटनीति से
बहुत दूर
वह मज़दूर
राजनीति-कूटनीति
थी सीमित उसके लिए
यहीं पर
हो नसीब
मात्र दो वक़्त की रोटी
सुख-सुकून से
किसी तरह होती रहे
परिवार का गुज़र-बसर
चलाता फावड़ा इसीलिए
रात को दिन में बदल देते है
वे
अपने लिए
हो वास्तविकता के निकट
ख़्वाबों से बहुत दूर
वह मज़दूर॥