भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह मनुष्य जिसके रहने को / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
वह मनुष्य जिसके रहने को
जो छोटा आँगन, गृह-द्वार,
खाने को रोटी का टुकड़ा,
पीने को मदिरा की धार!
जो न किसी का सेवक शासक,
हँसमुख हों जिसके सहचर,
कहता उमर सुखी है वह नर,
स्वर्ग उसे है यह संसार!