वह मिलन के स्वप्न बुनती रह गई पर / अमन चाँदपुरी
वह मिलन के स्वप्न बुनती रह गई पर
प्रीत की डोरी न अब तक जोड़ पाई
रूप-रँग औ' रस सभी फीके पड़े हैं
पाँव ने हठधर्मिता का दर्द झेला
प्यार का रस्ता बहुत लंबा व निर्जन
और मैं ठहरा पथिक बिल्कुल अकेला
स्वप्न चुनकर बुन रहा था ज़िन्दगी मैं
आँसुओं से स्वप्न की कीमत चुकाई
जब अधर ने मौन से सम्बन्ध जोड़ा
आँसुओं ने दर्द का इतिहास गाया
हो गयी विह्वल नदी जब नेह की तो
ऊर्मियों ने विरह का तटबंध ढाया
बच रहे थे हम व्यथा के गान से तो
गीत की फिर पंक्ति ही क्यों गुनगुनाई
उर्मिला-सी ज़िन्दगी उसने गुजारी
मैं लखन-सा विरह-रस पीता रहा हूँ
कौन जाने कब अवधि यह ख़त्म होगी
दर्द ले वनवास का जीता रहा हूँ
प्रीति के जितने लिखे थे पत्र मैंने
आज उनकी ही मुझे मिलती दुहाई
प्रेम की सरिता छुपी रहकर सभी से
दो उरों के बीच अविरल बह रही है
साथ पल का, पर उमर-भर की जुदाई
भाग्य की रेखा यही तो कह रही है
थपथपाकर स्वयं को ढाँढस बँधाया
और फिर मद्धम हुई यह रौशनाई