भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह मेरी मेरी माँ ही सकती है / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तारों की मद्धि‍म आंच में पका हुआ वह जो चेहरा है
वह मेरी का ही हो सकता है
पता नहीं पहले कौन पैदा हुआ था, वह या मैं
शायद मैं ही गया था अपनी बाहों के बल
उसके वक्षों तक और उसके आंचल में दूध उतर आया था
वह मेरा ही रंग था जिसकी छाया जब पडी थी
उसकी धूपहली आंखों पर
तो उग आयी थी वहां करूणा की छांह
उसकी शोखी उसकी चंचलता के मार तमाम रंग
चुरा लाया था मैं ही
धीरता की स्याह स्लेट पट्टी
बाकी रह गयी थी उसके पास
अपनी उधेडबुनें घि‍स घ‍िसकर
जिसे मैंने धूसर बना डाला था
धरती की तरह

बां.... यह संबोधन
पहली बार उतरा था मेरी ही आंखों में
उसने सुधारा भर था कर दिया था मां...

सुनहले पाढ की कत्थई साडी में
सूर्य को अर्ध्य देती
वह मेरी मां ही हो सकती है
उसकी आंखों की पवित्रता में
अक्सर डूबने लगता है अग्नि‍वर्ण सूर्य
उसको देख लगता है ईश्वर अभी जिंदा है और
समय के पाखंड से घबराकर
जा छुपा है उसकी आंखों में
वह मेरी मां ही हो सकती है
मेरी कविताओं के तमाम रंगों से ज्यादा
और लकदक रंगों की साडियां हैं उसकी
छुपा लेती हैं जो मुझाके मेरी लज्जा को
मेरे भय को।
1993