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वह रहा मेरा ही घर है / अमरेन्द्र
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वह रहा मेरा ही घर है,
और कुछ बाकी सफर है ।
हो रहा है शोर शिशु का,
पनघटों पर कलसियों का,
पेड़ पर बोले पड़ोकी,
वायु का पुरवाई झोंका;
झिंगुरों की तान झनझन
शाम से उठने लगी है,
मोगरे संग गंध तुलसी
पास आ जुटने लगी है।
वृक्ष बरगद, यक्ष बाबा
यानी बस्ती कोस भर है ।
आहटें हैं साफ आती
माँ की ममता बुल रही है,
साँझ की संझवाती हौले
आरती में घुल रही है;
देहरी पर, द्वार पर भी
दीप होंगे टिमटिमाते,
रोशनी की बाँह पकड़े
मौन छाया से बुलाते।
हंस जैसा मन हुआ है
गाँव अब भी मानसर है ।