वह लम्हा / संतोष श्रीवास्तव
वह लम्हा
जब मुझसे जुदा हुआ
जब उसे बांध लेना था मुझे
बंधन में
और मैं सदियों वीरानी जी रही हूँ
वह धूप था .....गर्म... चटकता सा
मैंने खुद को खुद पर बिछ जाने दिया था
और धूप की गर्म देह को ओढ़ लिया था
उसकी छुअन का रेशमी एहसास
जैसे बादलों को लपेटा हो
मैंने सूँघा उन हथेलियों को
जो अभी-अभी मेरे गालों पर
चंपा खिला गई थीं
वह मेरे हृदय तक उमड़ा
फूटती चिंगारियों सा
मैं पिघलने लगी पूरी की पूरी
नैन नक्श सहित पिघलने लगी
खुद-ब-खुद उसमें गिरने लगी
तैरने लगी, उड़ने लगी
वह मुझ में डूबता चला गया
मैं धरती बन गई
उसकी छुअन के भीतर
मैं जल बन गई
उसके हृदय में मचलता
मैं अग्नि बन गई
उसके तेज को पीती
मैं वायु बन गई
उसके आर पार बहती
मैं गगन बन गई
उसके विराट रुप को समेटती
वह तेज हीन हो गया
क्या मैं जानती थी
कि वह लम्हा बीत जाने पर
जिंदगी बदल जाएगी
मैं .... मैं नहीं रहूंगी
एक पूरा का पूरा सफा ठिठक जाएगा मुझमें
ठिठका रहेगा वो बीता सच
अब जो बंध गया है मुझमें
जबकि वह फिर से तेजमय हो जाएगा
हां वह तेजमय हो जुदा हो गया
मुझे अंधेरा सौंप
और मैं सदियों वीरानी जीती रही