वह वैसा ही था जैसे सब होते हैं / अशोक कुमार पाण्डेय
बेटा माँ का, पत्नी का सिन्दूर बाप की ऐंठी हुई मूछें बहन की राखी बेटे का सुपरमैन
रंग जैसा हर दूसरे इंसान का क़द भी वैसा वैसा ही चेहरा मोहरा बोली बानी...सब वैसा ही
वह लड़की भी तो वैसी ही थी जैसी सब होती हैं...
न होती खून से लथपथ, न होती चेहरे पर इतनी दहशत और बस जान होती इस देह में
तो गैया को सानी कर रही होती, गोइंठा पाथ रही होती, लिट्टी सेंकती गा रही होती सिनेमा का कोई गीत
स्वेटर बुन रही होती क्रोशिया का मेजपोश कपड़ा फींच रही होती हुमच हुमच कर चला रही होती हैण्ड पम्प
वह जो डरता था मोहल्ले के गुंडे से वह जो सिपाही को दरोगा जी कहकर सलाम करता था वह जो मंदिर में नहीं भूलता था कभी भोग लगाना वह जो बाप के सामने मुंह नहीं खोलता था उसने ...उसने !
उसने- जो रात के अँधेरे में दबे पाँव आता था कमरे में और आहिस्ता आहिस्ता खोलता था अपने भीतर के हैवान की जंजीरें और उतना ही आहिस्ता लौट जाता था
उसने- जो दीवारों और पेड़ों और फासलों की आड़ में खड़ा हो चुपके से हटाता था उस शैतान के आँखों की पट्टी
उसने- जो अँधेरे हालों से चुपचाप चेहरा छुपाये हुए निकलता था जो बस में कुहनियाँ लगाते चेहरा उधर फेर लेता था जो दफ्तर में सुलग उठता था मैडम की डांट पर जो बहन पर चिल्लाता था पीटता था बीबी को माँ से डरता था
उसने जिसका चेहरा कितना मिलता था मुझसे और तुमसे भी...