वह व्यक्ति रचा / हरिवंशराय बच्चन
(१)
वह व्यक्ति रचा,
जो लेट गया मधुबाला की
गोदी में सिर धरकर अपना,
हो सत्य गया जिसका सहसा
कोई मन का सुंदर सपना,
दी डुबा जगत की चिंताएँ
जिसने मदिरा की प्याली में,
जीवन का सारा रस पाया
जिसने अधरों की लाली में,
मधुशाला की कंकण-ध्वनि में
जो भूला जगती का क्रंदन,
जो भूला जगती की कटुता
उसके आँचल से मूँद नयन,
जिसने अपने सब ओर लिया
कल्पित स्वर्गों का लोक बसा,
कर दिया सरस उसको जिसने
वाणी से मधु बरसा-बरसा।
(२)
वह व्यक्ति रचा,
जो बैठ गया दिन ढ़लने पर
दिन भर चलकर सूने पथ पर,
खोकर अपने प्यारे साथी,
अपनी प्यारी संपति खोकर,
बस अंधकार ही अंधकार
रह गया शेष जिसके समीप,
जिसके जलमय लोचन जैसे
झंझा से हों दो बुझे दीप;
टूटी आशाओं, स्वप्नों से
जिसका अब केवल नाता है,
जो अपना मन बहलाने को
एकाकीपन में गाता है,
जिसके गीतों का करुण शब्द,
जिसके गीतों का करुण राग
पैदा करने में है समर्थ
आशा के मन में भी विराग।
(३)
वह व्यक्ति बना,
जो खड़ा हो गया है गया तनकर
पृथ्वी पर अपने पटक पाँव,
ड़ाले फूले वक्षस्थल पर
मांसल भुजदंड़ों का दबाव,
जिसकी गर्दन में भरा गर्व,
जिसके ललाट पर स्वाभिमान,
दो दीर्घ नेत्र जिसके जैसे
दो अंगारे जाज्वल्यमान,
जिसकी क्रोधातुर श्वासों से
दोनों नथने हैं उठे फूल,
जिसकी भौंहों में, मूछों में
हैं नहीं बाल, उग उठे शूल,
दृढ़ दंत-पंक्तियों में जकडा
कोई ऐसा निश्चय प्रचंड़,
पड़ जाय वज्र भी अगर बीच
हो जाय टूट्कर खंड़-खंड़!