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वह शब्द कहाँ से लाऊँ मैं / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'
Kavita Kosh से
वे शब्द कहाँ से लाऊँ मैं
जो प्रकट करे मन की पीड़ा।
जब पीर हृदय में उठती है,
इन आँखों में बहती सरिता।
तब उर को स्पंदित करके,
रच देती है कोई कविता।
ये प्रीत गीत जिसने गाया,
पाई हैै जीवन की पीड़ा।
वे शब्द कहाँ से लाऊँ मैं,
जो प्रकट करे मन की पीड़ा।
मन सौ दीवार खड़ी करता,
लेकिन सैलाब उमड़ आता।
तब लोकलाज के नीचे दब,
घुट-घुटकर ये मन रह जाता।
कैसे मैं इसको समझाऊँ,
भोगे ये छिन छिन की पीड़ा।
वे शब्द कहाँ से लाऊँ मैं,
जोप्रकट करें मन की पीड़ा।
नैनों ने हरदम साथ दिया,
सारे गम ये पी जाते है।
फिर ओढ़ सर्द चादर कोई,
सपने दफना सो जाते हैं।
तब एक नई सुबह होती,
छुप जाती सब इन की पीड़ा।
वे शब्द कहाँ से लाऊँ मैं,
जो प्रकट करे मन की पीड़ा।