वांछित क्रान्ति / कुमार विमलेन्दु सिंह
तुम उस स्थान से
जो समतल से थोड़ा ऊपर है
और जहाँ
तुम्हारा स्थित होना
एक संयोग मात्र है
करना चाहते हो
निर्णायक जैसा व्यवहार
सोचते भी नहीं
कि किससे होगा
या नहीं होगा स्वीकार
तुम आश्वस्त हो
क्योंकि जानते हो
कि प्लेटो का दार्शनिक राजा
कभी सजीव हो ही नहीं सकता
और तब तक
तुम ही मानक निर्धारित करते रहोगे
प्रत्ययों के
सत्य के
सौन्दर्य के
तुम अपनी
संयोगवश प्राप्त सुविधाओं के परे
एक लधु प्रसार से भी
अवगत नहीं हो
इस संपूर्ण धरा पर
और चाहते हो कि
तुम्हारे मानक स्वीकार्य हों
विश्व में?
रंग, स्वर्ण, मुद्रा, अक्षर, अनुभूति
सभी स्वतन्त्र रहे हैं सदैव
और तुम इन्हें
अपने सामर्थ्य जीतने
छोटे आवरण से ढककर
कला कह कर
प्रस्तुत करते हो
और जब देर तक
नहीं आती कोई प्रशंसा
स्वयं
काल्पनिक निज सफलता के
उद्धोषक बन जाते हो
ध्यान रखो
समय बहुत बीत चुका है
अब कई वर्ष हो चुके हैं
तुम्हें
अपने आप को
सफल अनुभव करते
इसी बीच
कुछ दूसरे तल
उठ चले हैं
हाँ, तुम से ऊपर
इनके मानक अलग होंगे
और इससे पहले कि
लोप हो जाए
मूल्यों का
बस इतना कह दो
अस्वस्थ हो चुकी भीड़ से
कि तुम
क्षमा प्रार्थी हो
उन सभी प्रस्तुतियों के लिए
जिनसे विषाक्त हुआ है
ग्रहण करने वालों का ह्रदय
इस क्षेत्र में
वांछित क्रान्ति के लिए
तुम्हारा यह योगदान
अमूल्य होगा