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वाक्यों जो छन्द जाल सीखा है बुनना मैंने / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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वाक्यों जो छन्द जाल सीखा है बुनना मैंने
उस जाल में पकड़ाई दिया है आज
बिन पकड़ा जो कुछ था चेतना की सतर्कता से बचा हुआ
अगोचर में मन के गहन में।
नाम में बांधना चाहता हूं, किन्तु
मानता नहीं नाम का परिचय वह।
मूल्य यदि हो उसका कुछ भी तो
ज्ञात होता रहता है प्रतिदिन और प्रतिक्षण
हाथांे-हाथ हस्तान्तर होने में।
अकस्मात् परिचय का विस्मय उसका
विस्मृत हो जाय तो
लोकालय में पाता नहीं स्थान वह,
मन के सैकत तट पर
विकीर्ण रहता वह कुछ काल तक,
लालित जो कुछ है गोपन का
प्रकाश्य के अपमान से
दिन पर दिन विलीन हो जाता वह रेती में।
पण्य की हाट में अचिहिृत परित्यक्त रिक्त यह जीर्णता
युग युग में कुछ कुछ दे गई है दान अख्यात का
साहित्य के भाषा महाद्वीप में
प्राणहीन प्रवाल सम।

‘उदयन’
संध्या: 4 फरवरी, 1941