वाणी की मूर्ति गढ़ रहा हूं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
वाणी की मूर्ति गढ़ रहा हूं
एकाग्र मन से
बैठा निर्जन प्रांगण में
पिण्ड-पिण्ड मिट्टी उसकी
बिखरी पड़ी है चारों ओर-
असमाप्त मूक
शून्य को ही देख रही निरूत्सुक।
गर्वित मूर्ति का पदानत
मस्तक झुका ही रहता है,
‘क्यों’ का उत्तर न दे सकता कुछ भी।
उससे भी कहीं ज्यादा शोचनीय बात यह -
पाया था रूप किसी काल में
उसका भी रूप, हाय, क्रमशः विलीन हुआ
गतिशील काल की अर्थ व्यर्थता में।
निमंत्रण था कहाँ, पूछा उससे,
उत्तर न मिला कुछ-
किस स्वप्न को बाँधने को
ढोकर धूलि का ऋण
दिखाई दिया
मानव के द्वार पर ?
विस्मृत स्वर्ग की किस
ऊर्वशी के चित्त को
धरणी के चित्त पट पर
बाँधना चाहा था
कवि ने-
तुम्हें तो वाहन के रूप में
बुलाया था,
चित्रशाला में रखा था यत्न से,
न जाने कब अन्यमनस्क हो भूल गया वह
आदिम आत्मीय तुम्हारी धूलि को,
असीम वैराग्य में दिग्विहीन पथ में
उठा लिया उसे अपने वाणी हीन रथ में।
अच्छा है, यही अच्छा,
विश्व व्यापी धूसर सम्मान में
आज पंगु कूड़े का ढेर
प्रतिदन की लांछना
काल के प्रति पदक्षेप में
बाधा ही दे रही बार-बार,
किन्तु पदाघात से जीर्ण अपमान से
पाती है शान्ति अवशेष में
मिलती जब फिर से वह धूलि में।
‘उदयन’
प्रभात: 3 मई, 1941