वात्सल्य / प्रकीर्ण शतक / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
दाख मधुर, मधु मधुर पुनि मधुर सिता रस घोल
ताहू सँ बढ़ि - चढ़ि मधुर लटपट तोतर बोल।।1।।
अद्भुत शिशु-संसार ई जतय अबोधे बुद्ध
अक्षर अक्षर क्षरित जत अटपट भाषे शुद्ध।।2।।
लुलितकेश, तन नगन, मन मगन, धूसरित पूत
राग द्वेष लव लेश नहि शिशु अद्भुत अवधूत।।3।।
पुछी आँखि तँ कानकेँ, नाक तँ देखबय दीठ
तदपि सत्य थिक शिशुक मुह झूठ साँच सँ मीठ।।4।।
जाया मल - मलिना जनिक तनिक जनकता धन्य
वन्ध्य अंगना पट विमल रहितहुँ, मलिन जघन्य।।5।।
रचथि, पुरथि, मेटबथि सहज कय क्रीडा संसार
खेलहि बुझि जग रमथि शिशु विधि हरिहर अवतार।।6।।
खन कानथि चिचियाथि, विनु हेतु हँसथि शत बेर
शिशु बताह जनु कर - चरन पटकथि कर्मक फेर।।7।।
झारि-पोछि गरदा यदि च तेल माय मलि दैछ
कत पसारि भाभट बटुक रज मलि पुनि चुप ह्नैछ।।8।।
चून लेपि, कारिख लगा’ कखनहु करथि सिङार
घर-घर घुमि, चुमि भूमि, शिशु अपराधिक व्यवहार!!9।।
तोतर बोल अमोल, मन सहजहिँ जाय बिकाय
माय-बाप जनु जौहरी, हीरा हँसी जोगाय।।10।।
कंठ न व्यंजन, मात्र स्वर अस्फुट वचन उचार
होथि ठाढ़ नहि, दाँत नहि, बूढ़क सभ व्यवहार।।11।।
माँ माँ रटि चलि चतुष्पद करथि दूध आहार
झपटब लखि मुसरी ससर, सरिपहुँ बाल बिलाड़।।12।।
कोरा पिंजड़ा बैसि, बिनु बुझनहु रटइछ नाम
ठोर लाल तिलकोड़ फड़, शिशु सूगा अभिराम।।13।।