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वाबस्तगी / फ़राज़

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वाबस्तगी<ref>बँधाव</ref>

आ गई फिर वही पहाड़-सी रात
दोश<ref>काँधे</ref> पर हिज्र<ref>विरह</ref> की सलीब<ref>चौपारे के आकाए की सूली</ref> लिए
हर सितारा हलाके-सुबहे-तलब<ref>प्रभात की इच्छा में घायल</ref>
मंज़िले-ख़्वाहिशे-हबीब लिए <ref>प्रिय के गंतव्य की इच्छा</ref>

इससे पहले भी शामे-वस्ल <ref>मिलन की संध्या</ref>के बाद
कारवाँ-ए-दिलो-निगाह<ref>दिल और दृष्टि का कारवाँ</ref>चला
अपनी-अपनी सलीब उठाए हुए
हर कोई सू-ए-क़त्लगाह चला<ref>वध-स्थल की ओर</ref>चला

कितनी बाहों की टहनियाँ टूटीं
कितने होंठों के फूल चाक<ref>विदीर्ण</ref> हुए
कितनी आँखों से छिन गए मोती
कितने चहरों के रंग ख़ाक<ref>धूल</ref>हुए

फिर भी वीराँ<ref>निर्जन</ref>नहीं है कू-ए-मुराद<ref>इच्छाओं की नगरी</ref>
फिर भी शब ज़िंदादार <ref>रातों को जागने वाले</ref>हैं ज़िंदा
फिर भी रौशन है बज़्मे-रस्मे-वफ़ा<ref>वफ़ादारी की परंपरा की सभा</ref>
फिर भी हैं कुछ चराग़ ताबिंदा<ref>प्रकाशमान</ref>


वही क़ातिल<ref>वध करने वाला</ref>जो अपने हाथों से
हर मसीहा<ref>मुर्दों को ज़िंदा करने वाला</ref>को दार करते <ref>सूली पर चढ़ाते हैं</ref>हैं
फिर उसी की मुराज़अत <ref>प्रत्यागमन</ref>के लिए
हश्र<ref>महाप्रलय</ref>तक इंतज़ार करते हैं

शब्दार्थ
<references/>