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वाबस्ता / मृत्युंजय
Kavita Kosh से
कोई दिन क़ैस देखने आना
ये दर्द गीत के भुतहे जनानख़ाने के
मोड़कर पैर पेट बीच किए जाने से
उसी के बीच ख़्वाब क़ब्र में पैदा होगा
जहाँ की यादें गड़ीं बीन्ध रही हैं कण्ठ तलक
वहीं पे पैर दिए जाता जा रहा है वह
निशानदेही करूँ पीछे चलूँ ज़ख़्म सिलूँ
करूँ तो क्या न करूँ, क्या करूँ, करूँ न करूँ
नीन्द में दर्द के लच्छे अजनबी तैरें
उनके ही फन्दे बनें और काठ उनका ही
जिस्म के बोझ से गरदन खिंची हो दम रुक जाए
आँख कोरों से निकलने-निकलने वाली हो
रीढ़ के जोड़ टूटते हों बबल-रैपनुमा
ग़ज़ब सी रात है कि आफ़ताब जलते हैं
धधकती माटी का है आधा हाथ उट्ठा हुआ
दुखों के बौर बान्धे दिल सहमा टूट गया
यक-ब-यक ख़ाक हुआ शाम है कि भोर हुई