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वाम तर्जनी पर कालिख / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
जिसमें डाकू हों निर्वाचित
साधू की लुट जाय जमानत ।
ऐसे लोकतन्त्र पर लानत ।
नस्ल वही है जोंकोंवाली
चेहरे केवल नए-नए हैं
चुन देना था जिनको दीवारों में,
वे चुन लिए गए हैं ।
भैंसें अब हैं राजमहिषियाँ
गाय-बछेड़ों की है शामत ।
खूँखारों के इस जंगल में
बकरी ख़ैर मनाए कब तक ?
मन्दिर पर तेजाबी बारिश हो,
मैं खड़ा रहूँ श्रद्धानत !
जय-जयकार शकुनियों का है
जनमत का उठ गया जनाजा
शहंशाहों की संसद से
परजा माँगे विक्रम राजा ।
राम-कृष्ण की धरती को यह
रास न आती नयी सियासत ।
पाँच बरस पर वाम तर्जनी पर
कालिख़ पुतवाने वालो
दुराचार के सागर डूबी
लोकतन्त्र की नाव बचा लो।
ज़िन्दादिल जो भी हैं
अपने मुर्दाघर से करें बगावत ।