भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वायु / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल पडी चुपचाप सन-सन-सन हवा,
डालियों को यों चिढाने-सी लगी,
आंख की कलियां, अरी, खोलो जरा,
हिल स्वपतियों को जगाने-सी लगी,

पत्तियों की चुटकियां झट दीं बजा,
डालियां कुछ ढुलमुलाने-सी लगीं।
किस परम आनंद-निधि के चरण पर,
विश्व-सांसें गीत गाने-सी लगीं।
जग उठा तरु-वृंद-जग, सुन घोषणा,

पंछियों में चहचहाट मच गई,
वायु का झोंका जहां आया वहां-
विश्व में क्यों सनसनाहट मच गई?