वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ / सूरदास
राग गौरी
वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं रसना सो जिहिं बोल्यौ है तुकारि ।
वारौं ऐसी रिस जो करति सिसु बारे पर
ऐसौ सुत कौन पायौ मोहन मुरारि ॥
ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई
बाँध्यौ है गोपाल लाल बाहँनि पसारि ।
कुलिसहु तैं कठिन छतिया चितै री तेरी
अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि ॥
कौन जानै कौन पुन्य प्रगटे हैं तेरैं आनि
जाकौं दरसन काज जपै मुख-चारि ।
केतिक गोरस-हानि जाकौ सूर तोरै कानि
डारौं तन स्याम रोम-रोम पर वारि ॥
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं-(कोई वृद्धा गोपी कह रही है-)`उन हाथों को न्योछावर कर दूँ, जिन्होंने श्याम के शरीर का स्पर्श किया है (उसे मारा है)! उस जीभ को न्योछावर जो `तू' कहकर (मोहन का अपमान करके) बोली है! ऐसे क्रोध को न्योछावर कर दूँ, जो इतने छोटे शिशु पर किया जाता है ! भला, ऐसा मोहन मुरारि के समान पुत्र पाया किसने है ? सखी ! व्रजरानी यशोदा ऐसी निर्मम हो गयी कि गोपाललाल की भुजाएँ फैलाकर उसे बाँध दिया है ! अरी देख तो, तेरा हृदय तो वज्र से भी कठोर है, जो मोहन को दुःखी देखकर अब भी नहीं पिघलता । जिसका दर्शन पाने के लिये चतुर्मुख ब्रह्मा सदा जप (स्तुति करते रहते हैं, पता नहीं किस पुण्य से तेरे यहाँ आकर वे प्रकट हुए हैं । अरी गोरस की कितनी हानि हो गयी, जिसके लिये संकोच तोड़ रही है ! श्यामसुन्दर के तो रोम-रोम पर मैं शरीर न्योछावर कर दूँ (दूध दही की तो बात ही क्या है ?)'