वाल्मीकि उवाच / योगेन्द्र दत्त शर्मा
अभिशाप मेरे साथ यह कैसा हुड़ा, तमसा नदी!
फिर एक जोड़ा क्रौंच का बिछुड़ा, घिरा तम-सा, नदी!
यह क्या घटा फिर दृष्टियों के सामने
कोई न आया इस प्रलय को थामने
कैसी रची यह सूर्यवंशी राम ने दारुण कथा,
क्यों टूटकर अंबर अभी गिरता नहीं
यह थरथराता-सा समय थिरता नहीं
मन में उमड़ता मेघ यों घिरता नहीं क्या अन्यथा;
पर क्या करूं, आघात यह मन पर हुआ सहसा, नदी!
वह श्लोक पहला था हृदय का आर्त स्वर
उस शोक-विह्वल क्रौंच-स्वर की गूंज-भर
देखा गया मुझसे न व्याकुल पंखधर मरता हुआ,
वह श्लोक मर्माक्रांत भावावेग था
मेरे हृदय का फूटता उद्वेग था
झुलसे हुए मरु-प्रांत में वह मेघ था झरता हुआ;
तुम आदि कवि कहतीं, मगर मैं सिर्फ माध्यम था, नदी!
यह श्लोक अंतिम भी उसी दुख में पगा
आपाद मस्तक विरह के रंग में रंगा
अभिशप्त संध्या में भटकते सामगानों-सा विकल,
यह श्लोक विरही राम का अवसाद है
यह जानकी की भूमि-धंसती याद है
यह शेष, मर्यादा-पुरुष का स्वाद है कड़वा-गरल;
यह है नियति की क्रूरता का मौन विभ्रम-सा, नदी!
धरती फटी, सीता समाई गर्भ में
पर प्रश्न उभरे, इस करुण संदर्भ में,
तीखी अनी-से चुभ रहे जो मर्म में अतलांत तक,
क्या लोक-मर्यादा समय की प्यास है
जिसमें समता दृष्टि का इतिहास है
या वंचनाओं का विकट परिहास है सीमांत तक;
क्या यह न टूटेगा कभी उन्मत्त दुष्क्रम-सा, नदी!
क्या सिर्फ सीता के लिए था अग्नि-पथ
निर्वास, निष्कासन, परीक्षाएं अकथ
पिसना सहज मन-का नियति के क्रूर रथचक्रों-तले,
यह अंत गाथा का विसंगत, कारुणिक
सुख का मलय-झोंका मिला, लेकिन क्षणिक
सीता-वियोगी राम के आदर्श निकले खोखले;
साक्षी न कोई अन्य यह हतभाग आश्रम था, नदी!
थे राम विजड़ित, शून्यचित, खंडित हृदय
बोले-‘धरित्री! व्योम! ओ मेरे समय!
निष्काम माटी! बोल, क्या इस दिग्विजय का अर्थ है?
मैं भी हतप्रभ-सा खड़ा यह देखता
हैं राम निष्प्रभ, जानकी अस्तंगता
यह शोक-विह्वल मन स्वयं को मानता असमर्थ है;
फिर क्रौंच-क्रंदन कान में गूंजा, हुआ भ्रम-सा, नदी!
मूर्च्छित समय के दंश से मैं भी हुआ, तमसा नदी!
-29 अपै्रल, 1985