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वाल्मीकि - 1 / प्रतिभा सक्सेना

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ओ राम सुनो, तुम जब भी अपना नाम सुनो

दोहरा जाओ तब अनायास अपना जीवन
औ राम कहानी कहलायें दुख-गाथायें,
स्पष्ट हो उठे मिथ्यारोपण, अपवञ्चन!

धरती तो बारम्बार जन्मती सीतायें,
पर राम उसे स्वीकार नहीं करने पाते,
उसकी अस्मिता जागती जिस दिन उस दिन से,
सम्मुख आने में भी घबराते भय खाते!

नारद बोले थे "इस दिग्भ्रमित व्यथा को,
कवि के मानस, का विकल छन्द स्वर देगा!
तुम जिसे जी रहे घोर अशान्ति समेटे,
वह दग्ध मनुज पर करुणा-बन बरसेगा!"

पर उत्तर कथा वहीं पर रुकी खड़ी,
सीता के बिन सूना-सा है आश्रम!
दिन घिसट-घिसट कर बढता शाम तलक,
रात्रियाँ जागतीं, फिर आजाता दिन!

ऋषि को लगता वह भटक रही सीता,
कंटकमय सूने पथ पर एकाकी!
फिर अनासक्त मन विचलित हो जाता,
मन में अनगिन शंकायें भर जाती

वड़ दुर्बल श्लथ घासों पर जा बैठी,
पूछती अवनि-तनया अब कवि-ऋषि से
"पत्नी को त्यागे मुक्ति-सुयश पाये,
पति को त्यागे तो रौरव में जाये?"

नयनों से बहते अश्रु पोंछते वाल्मीकि,
फिर धुँधला जाती दृष्टि और जल बह आता,
कैसा संबंध अचानक ही जुड़ गया यहाँ,
जो अनासक्त मन काँटों से बिंध जाता!

तरु-पातों की मर्मर
ऋषि के अंतस में फिर सीता का स्वर
संबंध पितृ-कुल से न रहा,
जीवन-साथी ने दिया त्याग,
अब मेरा कौन काज बाकी
वे पुत्र न मेरे रहे आज!

मैं तो उखडी थी तात, जन्म से ही,
यह उखड़ापन ही मेरे साथ रहा,
ऋषि पिता, सोच मत करना,
यह अनुभव मेरे लिये नहीं है नया!

तमसा-तट पर शायद बैठी हो सीता,
संभव है हो उन तरुओँ के पीछे,
लग रही द्वार पर कुछ आहट सी अब,
बैठे हैं ऋषि अपनी आँखें मीचे!

रातों में चौकी पर बैठे ऋषि वाल्मीकि,
देखते न जाने क्या अँधियारे में!
दिन दे जाता है समाचार पुर के
सब को मिल गया राज्य बँटवारे में!

प्रतिमानो का दोहरापन और क्षरण
अब कहाँ चक्रवर्तित्व सूर्य जैसा!
इस पीढ़ी में ही बदल गया सब-कुछ
कुल-गरिमा और आचार हुआ कैसा!

सोचते रहे ऋषि-कैसा हुआ पतन
निःशेष हो गये सारे संवेदन?
हैं शब्द-हीन क्या सारे ही बुधजन?

बस सतत समर्पण और भक्ति से भर,
निस्संशय हो उन पर विश्वास करें,
'अपने को जानो' व्यर्थ बात है यह
उनको जानो बस उनकी ही आस करो!

'फिर क्या भविष्य?'
यदि कोई आ पूछे,
बस हाथ हिला कह दो कि,
'राम जाने!'

आदेश-भंग का दण्ड स्वयं लेकर
यह सुना कि जल-समाधि ली लक्ष्मण ने,
फिर दुख घटना दावानल सी फैली
जा राम समाये सरयू के जल में!

कुछ लिखते रहे रात भर ऋषि,
रात भर कँपता जला दिया,
राम का अन्तिम जीवन-पृष्ठ
लेखनी ने चल कर लिख दिया!