वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
जब इंडिया गेट के माथे पर मोमबत्तियाँ जलती हैं
तो उसकी सुगंध में सनक उठता है ‘जंतर-मंतर’
‘सज़ा’ के झुलसे हुए उदास होंठों पर
एक चीख़ चिपक जाती है काले जादू की तरह
लोग कहते हैं ‘समय’ को सिगरेट की आदत है
मैं तलाशने लगता हूँ अपनी बेआवाज़ पुकार
जो गुम गई है एक लड़की की मरी हुई आँखों में
लड़की, जो अब ज़िंदा है महज शब्दों के बीच...।
भेड़िए अब भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं
यह रंगों की साज़िश के सिवा भी बहुत कुछ है
जो अंत में उभरता है सिर्फ़ स्याह बनकर
मदद करने से पहले घंटों सोचने वाले लोग
घंटों खड़ा होने से नहीं हिचकिचाते हैं
एक चिड़ियाघरनुमा भवन के सामने
जहाँ मैंने गीदड़ों के अलावा किसी को नहीं देखा
(क्योंकि अपनी आँखों पर आरोप नहीं उड़ेल सकता)
मैं ख़ुद को पागल घोषित करने पर मज़बूर हूँ।
दिमाग़ की नसों में तैरती हैं दादीमाँ की बातें
दादीमाँ कहती थी—
‘सितारे बन जाते हैं लोग मरने के बाद’
कुछ सोचकर अपने बदन पर मलने लगता हूँ
एक काँपती हुई गुहार की राख
(जो सितारों की राख की तरह रंगहीन है)
सम्वेदनाएँ हाथी की पूँछ पर जा बैठी हैं
और हाथी के सिर से जूएँ निकाल रहा है एक बंदर
एक लोमड़ी कहती है—
‘हमारे पुर्वजों ने खट्टे अंगूर की प्रजातियाँ नष्ट कर दी है।’
भारत के चेहरे पर अब भी हैं चकत्तों के दाग़
भले दिल्ली अपनी छाती का कोढ छुपा ले
बयानबाजी का ‘ब्लू पीरियड’ अभी गुज़रा नहीं है
‘वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी’ पर कोई लिख गया है—
‘कुत्ते की दुम में पटाखों की लड़ी बाँधना मना है’
मुझे शक होता है उँगलियों की भाषा पर
हैरान हूँ साँस के उमड़ते हुए सैलाब को देखकर
उम्मीदों को शर्म की नदी में डूब मरना चाहिए
यह जानते हुए कि एक ‘डेड प्लेनेट’ है चाँद
लोग अब भी आसमान की ओर ताक रहे हैं।