भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वासन्ती दोहे / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वसन्त द्वारे है खडा़, मधुर मधुर मुस्कान ।

साँसों में सौरभ घुला, जग भर से अनजान ।।1


चिहुँक रही सुनसान में, सुधियों की हर डाल ।

भूल न पाया आज तक, अधर छुअन वह भाल ।।2


जगा चाँद है देर तक, आज नदी के कूल ।

लगता फिर से गड़ गया उर में तीखा शूल ।।3


मौसम बना बहेलिया, जीना- मरना खेल ।।

घायल पाखी हो गए, ऐसी लगी गुलेल ।।4


अँजुरी खाली रह गई, बिखर गये सब फूल ।

उनके बिन मधुमास में, उपवन लगते शूल।।5