वासवदत्ता और चाँद की जलन / विमल राजस्थानी
अतिशय उदास, चौंका-चौंका-सा भ्रमित मयंक गगन का
यह कौन ज्योत्सना लुटा रही है मुक्त-हस्त धरती पर
मैं सह न सकूँगा और अधिक लावण्य-तेज आनन का
अंगों से झरती सुधा-धार अविरल, अमंद जगती पर
जिसका मुख मुझसे भी दूना-दूना निखार छिटकाता
नागिन-सी काली लटों बीच मृदु मंद-मंद मुस्काता
तारों से पूछ थका तो कवि के निकट पूछने आया
”यह कौन मित्र! यों उतर धरा पर झूम रही है माया
यमुना के श्यामल जल में तल तक जिसका बिम्ब झलकता
जिसकी निदाध सुन्दरता से रति-पति का हृदय दहकता
रातों की नींद गयी, दिवसों में भी तो प्राण सुलगते
ईर्षा के मारे मलिन हुई जा रही स्निग्ध सुन्दरता
लगता है मेरी ओर न धरती रातों को हेरेगी
अपना सारा भंडार प्यार का तन्वंगी को देगी
तुम तो हो मेरे मित्र, तुम्हारे आड़े हरदम आया
प्रिय! सदा प्रेयसी-मुख को तुमने मुझ-सा ही बतलाया
तारों का यह दल तो केवल बस झिलमिल करने भर का
सोचा-आश्रय लूँ अणु-अणु वासी विश्वासी कविवर का
इसलिये यहाँ चुपके से छिप कर श्याम मेघ में आया
पा सकूँ चैन यदि इस रहस्य की तनिक छू सका छाया“
चिन्तित उदास निशि-पति को कवि ने हँसती आँखों देखा
उग रही दूधिया शशि-दृग में ईर्षा की काली रेखा
बोला-कवि -”बंधु! उर्वशी, रंभा और मेनका ने मिल
वारा सारा निज रूप, हँस रही ‘वासवदत्ता’ खिल-खिल
यह अतिशय ऐश्वर्यशालिनी है धरती की नारी
इसके चरणों पर लोट-लोट जाते सारे संसारी
वेश्या है, विधि ने रचा इसे सौन्दर्य-कोष पर रीता
तुम नभ के हो हे बंधु! और यह पूर्णचन्द्र जगती का
चिन्ता न करो, तुम शाश्वत हो, यह मृग-मरीचिका, छल है
तुम तो हो अमृत-प्रकाशी, यह असुरों की सुरा प्रबल है
हे मित्र! अस्तु, लौटो, धरती को सुधा-धार से सींचो
निज अमर ज्योत्सना-उदधि नीर को शत-शत करों उलीचो
आयेगा दिवस एक ऐसा धरती का विधु न रहेगा
हाँ, यह होगा इतिहास कथाएँ इसकी सदा कहेगा
सशरीर युगों तक तुम जो मेरे मीत! रहो-चमकोगे
‘वासवदत्ता’ का तो केवल बस नाम-रूप दमकेगा“
बादल का घूँघट उलट, चाँद फिर अधर धार में लटका
औ इधर ज्योति से सराबोर कर रहा चाँद घूँघट का
फिर रही उँगलियाँ वीणा पर, स्वर-लहरी दिशि-दिशि छायी
‘वासवदत्ता’ ने झूम-झूम मधु की गागर छलकायी
हैं दसों दिशाएँ स्तब्ध, सुधा-रस-स्नात धरा होती है
धरती तो धरती, अमर सुरपुरी भी सुध-बुध खोती है
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बीती आधी रात, चाँद महलों के ऊपर आया
तभी पियूषी विधु-वदनी ने अंतिम राग सुनाया
बहुत देर तक रही गूँजती वीणा की स्वर-लहरी
पहरे पर सारे सतर्क हो गये चतुर्दिक प्रहरी
घंटा-बारह बार निनादित हुआ, रोशनी सिमटी
चख कर अंतिम रस-बूँद विसुध जग रति रानी के घट की
सुख-सन्नाटा आधी रजनी का छाया, दुनिया सोयी
श्लथ वीथि-वीथि ‘वासव’ के ही सुख के सपनों में खोयी
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अलसायी-सी लेती अँगड़ाई, पुलक बजाती चुटकी
पी रही केलि-श्लथ ‘वासवदत्ता’ वायु प्रात की टटकी
आधी खिसकी कंचुकी, झाँकते अहरह पीन पयोधर
वेणी वक्षों के बीच झूलती ज्यौं पहरे पर फणिधर
वस्त्राभूषण सब अस्त-व्यस्त, सलवटों भरा बिस्तर है
लगता है रहा केलि-रत सारी निशि कोई किन्नर है
नर की थी पहुँच नहीं, सुर ही किन्नर बन कर आते हैं
पद पर न्यौछावर कर कुबेर का कोष, तृप्ति पाते हैं
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धो कर गुलाब जल से रतनारी आँखें, वस्त्र सँभाले
कुहकी ‘वासवदत्ता’- पय के शत घट लाओ हे बाले!
मैं दूधों भरी तलैया में पहले तैरूँगी जी भर
तू जा, शृंगार-कक्ष में रख चन्दन-कस्तूरी केशर
है नयी-नयी तू, काज निगोड़ी! सभी बताने होंगे
री! केलि-कक्ष चौंसठ महलों के भी दिखलाने होंगे
उफ! जब से गयी ‘सुनयना’ ले अवकाश, बहुत झंझट है
है तो दासियाँ असंख्य किन्तु, वे मुई चपल, नटखट हैं
‘मन्दाकिनी’ नाम है तेरा, मन्थर वैसी ही है
नख-शिख तू अपनी सहोदरा ‘नयना’ जैसी ही है
यहाँ कंचुकी पहन घूमने की है सख्त मनाही
तने-तने गोरे उरोज हों, घूंडी पर हो स्याही
वस्त्र पहने होंगे तुझको भी नाभी से नीचे
चम्पकवर्णी रोमावलि मदिरा के कलश उलीचे
नहीं मुक्तकेशी रहना, वेणी में सुमन सजाना
मणियों की करधनी, स्वर्ण के नूपुर सदा बजाना
सुनती नहीं? सहस्त्रों नूपुर सदा बज रहे ऐसे
‘वासव’ के महलों में रति का रास रचा हो जैसे
देख, मुझे रुचिकर दाड़िम कन्धारी, दाँतों जैसे
उत्तरीय मुझको पसन्द बगुलों की पाँखों जैसे
श्वेत रुई के पहलों वाला जिनका नरम बिछौना
रुचिकर है अंगूर चमन के, मात्र जानती ‘नयना’
एक असर्फी नित्य दाल में छौंकी जानी ही है
मेरे लिए सुरा जैसे यमुना का पानी ही है
मलयागिरि चन्दन का रोगन कुन्तल में रमता है
पवन मलयवाही सुवास के हेतु यहाँ थमता है
अरुण एड़ियों में सुहास भरती हूँ रचा महावर
कर्पूरी काजल से नयनों के सँवारती तेवर
माथे पर नौलक्खी हीरे की बिंदी धरती हूँ
इसी भाँति मैं नित्य सांध्य-शृंगार किया करती हूँ
‘मन्दाकिनी’ चकित, विस्मित-सी लौटी कर सिर नीचा
नग्नकाय ‘वासवदत्ता’ ने तन पर दुग्ध उलीचा
रहा हेरता तृषित दृगों से चाँद गगन का फीका
विहँस इधर दूधिया धार में डूबा शशि धरती का
-वासवदत्ता-खंड काव्य से
1.1.1974