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वा मौज-ए-ख़ुनुक शहर-ए-शरर तक नहीं आई / फ़ुज़ैल जाफ़री

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वा मौज-ए-ख़ुनुक शहर-ए-शरर तक नहीं आई
दरियाओं की ख़ुश्बू मेरे घर तक नहीं आई

सन्नाटे सजाए गए गुल-दानों में घर घर
खोए हुए फूलों की ख़बर तक नहीं आई

हम अहल-ए-जुनूँ पार उतर जाएँगे लेकिन
कश्ती अभी साहिल से भँवर तक नहीं आई

सद शुक्र तेरा रौशनी-ए-तबा की हम को
बर्बाद किया और नज़र तक नहीं आई