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विकल्पहीन / श्रीधर करुणानिधि

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“हम कहाँ जाएँ ?”
दूर-दूर तक फैले समन्दर को देखकर
सोचते हैं जहाज़ की छत पर बैठे हुए पँछी
कहते हैं पोटली बान्धकर स्टेशन पर बैठे
गाँव के मज़दूर ....

“कहाँ जाएँ हम ?”
मरी हुई फ़सल और बंध्या धरती देखकर
कहते हैं सोनाय मुर्मू, धनेसर महतो और कई खेतिहर किसान
उजड़े आशियाँ को देखकर सोचती है
आसमान में पँख तौलती हुई
बेहद ख़ूबसूरत पँखों वाली चिड़ैया...

“कहाँ जाएँ हम ?”
एक बेरहम वाक्य
किसी अकाल के बाद की महामारी
किसी देश के बँटवारे के बाद का
शरणार्थी-शिविर
जल-प्रलय के बाद बचे लोगों की भूख
कितने ही ज़ालिमों से भरे
किसी जेल का टार्चर-वार्ड
सैकड़ों ‘आबूगरीब’
कई इराक

“हम जाएँ तो कहाँ ?”
एक दर्द भरी आवाज़
किसी माँ का
अपना जवान बेटा खोने का ग़म
बमबर्षक जहाज़ों से गिराए गए बमों से
नन्ही सी मासूम लड़की के कोमल हाथ खोने का गम
ताज़ा फूलों के गुलदस्ते का क्षत-विक्षत शव

छिनती ज़मीन
नष्ट कर दिए गए जंगल
बहुद्देशीय परियोजनाओं के लिए
बनाई गई झीलों में डूबते सपनों के घर
भटकती भीड़ थके हारों की

एक दर्द भरी सिहरन
सिसकती आवाज़ें
शिकायत कर-कर के थकी हुई ज़ुबानें
असहाय बेबस चेहरों में छिपा दर्द
सबकी आहें
झूलती बाहें
काँपतीं टागें

हर तरफ अपनी बात कहते लोग
चीख़ते-चिल्लाते लोग कि
“कोई तो बोले आख़िर कहाँ जाएँ हम सब”

क्या है कोई जगह ?
जहाँ बचाई जा सके ज़िन्दगी
महज सांसों की आवाजाही से भरी सुन्दर ज़िन्दगी
और उस सुन्दर ज़िन्दगी की एक मासूम पहचान
ख़्वाब
कोरे काग़ज़ से झूठे ही सही

क्या है कोई जबाव
कि इतनी बेरहमी से
विकल्पहीन क्यों होती जा रही है
विकल्पों से भरी दिखती यह दुनिया !