विकारो का मंदिर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
कहीं-कहीं कुछ धूप खिली है,
कहीं-कहीं कुछ छाया है।
कहीं-कहीं वैराग्य मुखर है
कहीं उल्लसित माया है।
सुर दुर्लभ है और सभी साधन
हैं सहज सुर्लभ जिसको,
वहीं विकारों का मन्दिर है
वहीं मोक्षदा काया है।
नित्य नया शृंगार सजाती,
परिवर्तन हम हैं कहते
सृजन-प्रलय का यह अविरल
क्रम नहीं समझ में आया है।
उर-मंदिर में आप विराजे
बनकर धवल प्रकाश अमल,
जगडवाल में मन-पंछी को
आखिर क्यों भरमाया है?
तुम ही तो पावन विवेक हो,
और तुम्हीं चंचल मन हो,
मुक्ति शान्ति तो अन्तस में है,
बाहर क्यों भरमाया है?
तुम प्रेरक हो तुम्हीं प्रेरणा
और तुम्हीं हो लक्ष्य बने
तुम ही भीतर तुम ही बाहर
फिर क्यों भेद उगाया है?
सघन विचारों के ये बादल
नभ विवके को ढके हुए
दूर बहुत हैं गरज रहे है
सुनकर मन अकुलाया है।
जड़-चेतन जड है,
यह भी एक रहस्य बना
है प्रधान बस एक तत्व ही
गुरू प्रसाद से पाया है।