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विकास करते हुए / शशि सहगल

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मन बार-बार भटक जाता है
उठते हैं उसमें अनेक सवाल
मनुष्यता, करुणा, दया
कहाँ मिलते हैं ये सब
क्या कीमत है इनकी?
ऊँची अट्टालिकाओं में रहने वाले
तथाकथित 'मनुष्यों' की,
मर चुकी हैं सभी भावनाएँ
सजा दिया गया है उन्हें
भाँति-भाँति के शो-केसों में
जहाँ प्रमाण के लिए
हर किस्म की 'दया' मौजूद है।
ठंडी पड़ी 'मनुष्यता'
बड़ी सजावट के साथ
शीशे के बन्द बक्से में पड़ी है।
उसे कहीं गरम हवा न छू जाय
इसी से कमरा भी वातानुकूलित है।
'करुणा' शब्द अब हर जगह से
हटा दिया गया है
आवश्यकता ही नहीं रही इसकी
अपोलो युग
सभ्यता के विकास का युग है।