विकास लील गया मेरी पीठ / वंदना गुप्ता
मत ढूँढो छाँव के चौबारे
तुम ने ही तो उतारे वस्त्र हमारे
अब नहीं जन सकती जननी
बची नहीं उसमे शक्ति
पौधारोपण को जरूरी है बीज
और तुमने किया मुझे निस्तेज
बंजर भूमि में गुलाब नहीं उगा करते
जाओ ओढ़ो और बिछाओ
अब अपने विकास की मखमली चादरें
कि
कीमत तो हर चीज की होती है
फिर वो खोटा सिक्का ही क्यों न हो
फिर मैं तो तुम्हारे जीवन का अवलंब था
मगर
विकास की राह का सबसे बड़ा रोड़ा
खदेड़ दिया तुमने
कर लिया शहरीकरण
फिर क्यों बिलबिलाती हैं तुम्हारी अंतड़ियाँ
जो बोया है वही तो काटोगे
क्योंकि
'वृक्ष ही जीवन हैं' के स्लोगन को
कर दिया तुमने विस्थापित अपनी आकांक्षाओं से
तो अब क्यूँ कर रहे हो तर्जुमा
मेरी पीठ पर उगी विकास की खरपतवार का
अब कितनी दवा दारू करना
विकास के चश्मे से
नहीं किया जा सकता अहिल्या उद्धार
विश्व पर्यावरण दिवस पर
तुम्हारा विधवा विलाप
नहीं दे सकता मुझे मेरी खोयी आकृति
क्योंकि
विकास लील गया मेरी पीठ