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विकास / शशि सहगल
Kavita Kosh से
आज फिर मन करता है
लिखूँ एक प्रेम कविता
अपने और तुम्हारे संबंधों पर
पलटूँ
विगत वर्षों के पन्ने
घूम आऊँ
कुछ देर उन गलियारों में
जहाँ पहली बार
पहचाना था आदिम गंध को
अपनी उष्मा को
खुद में खुदी को गरक करने की लालसा
बड़ी तेज़ी से महसूस हुई थी
अकेली नहीं थी मैं
समुद्र से तुम
पूरे आवेग के साथ मेरे सामने
ज़रा भी संकोच नहीं हुआ
मेरा व्यक्तित्व
तुमसे मिल हरिया गया
और हम घने पेड़ से
जड़ों को मज़बूत करते
बढ़ने लगे ऊपर
और ऊपर।