Last modified on 7 मई 2011, at 16:21

विक्टोरिया ऑकाम्पो / उषा उपाध्याय

हे कवि !
शाम के घने धुँधलके के साथ
यह कौन-सी वेदना तुम्हें ले जाती है
उदासी के अथाह समुद्र में ?
तुम्हारी शून्यवत आँखों में
फड़फड़ाते हैं यह
कौन-सी वेदना के बादवान ?

वापस आ जाओ, वापस आ जाओ
इस प्लाता नदी के तीर पर, हे कवि !

डर लगता है मुझे
होते हो तुम जब उदास,
ऐसा लगता है जैसै यकायक
ढकेल दिया हो किसी ने मुझे
गहरी घाटी की धार पर...

तुम्हारे चेहरे पर छाई
घनी उदासी को पोंछने के लिए
मैं बढ़ाती हूँ अपना हाथ
लेकिन
झर जाती है मेरी सभी उँगलियाँ
तुम्हारे चेहरे तक पहुँचने से पहले ही

घेर लेती है मुझे
चारों और से
ऐक बेबस पीड़ा की बाढ़ ,
लेकिन
दूसरे ही पल
मुझ में बसी नारी का हृदय
तरस जाता है
शिशु की भाँति तुम्हें
पल्लू में छिपा लेने के लिए,

मन चाहता है कि
तुम्हारी समस्त वेदनाओं को
रोक दूँ
अपने पल्लू के उस पार
और देखूँ
तुम्हारे चेहरे पर
पंछी के हल्के से पर जैसी फहराती
चिर-परिचित मधुर मुस्कान....

हे कवि
शाम की म्लान परछाँई की तरह
आँखों में चुपके से फैलती हुई
और होठों पर एक मौन चीख़ बनकर
रूकी हुई
तुम्हारी घनीभूत वेदना
दे दो मेरे इस पल्लू को,

मै नारी हूँ, हे कवि !
झेल ही नहीं पाऊँगी
बल्कि जी जाऊँगी तुम्हारी व्यथाओं की अथाह गहराई से
और फिर
खिल उठूँगी तुम्हारी
तुषारमंडित प्रभात जैसे स्मित में...