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विक्षिप्त / मधु शर्मा
Kavita Kosh से
अंधेरे की बिसात से होकर
आती है कोई बात--
कान सुनते हैं
छूते हैं हाथ
वह कहीं भी
घटित नहीं हुई
उसकी खोज में अपने से
बाहर चली जाती हूँ मैं
पर इस तरह नहीं
कि लौटकर आ ही न सकूँ
मैं उन पागलों-सी नहीं
जिन्हें यह भी याद नहीं
कि उनके घर हैं ।