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विगत-आगत / अशोक कुमार पाण्डेय

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जहाँ लिखा था मैंने प्रेम
तुमने फाड़ दिया वह पन्ना
स्मृतियों के पार किसी कर्मनाशा में बहा आई
एक नदी तुम्हारे आसुओं की भी थी
एक सूखी नदी मेरे आसुओं की

जाने किन पर्वतों में भटकती चली आईं थी ये नदियाँ
जहाँ संगम था वहां एक एकांत था निर्जन
एक ध्वनि गूँजती थी वहाँ निःशब्द
हवा रुक जाती थी वहाँ
पक्षी ठहर जाते थे कुछ देर
पेड़ों से झरती थीं कुछ पत्तियाँ
अकेला एक मृग प्यासा लौट जाता था

बावरा बैजू उसी ठाँव बैठ छेड़ता था अर्धरात्रि में राग हेमंत
जाने कहाँ से आती थी एक धुन राग चम्पाकली की
कोमल निषाद सुर जैसे उमड़ पड़ी हो सूखी नदी में धार
सूखे हुए पत्तों पर गिरती थी चाँदनी सारी रात
जैसे दुःख गिरता हो किसी चेहरे पर बेआवाज़
एक पेड़ छाया बन पसर जाता था वहाँ
जैसे खाना परोसती झक सफ़ेद मेजपोश पर क्रेजनर
बना रही हो कोई चटख चित्र

किसी धार में बहते कभी मिल ही जाएँ कहीं वे टुकड़े
अंतरिक्ष के किसी उदास कोने में मिल जाएँ निःशब्द आवाज़ें कोई अनुनाद हो कहीं प्रतीक्षा में
कहीं नाविक हो अपना ले चले भुलावा देकर
कोई शहर हो वीरान।