भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विघटन / राजकमल चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीले झाग में लिपटा हुआ । और कोई वस्त्र नहीं ।
शहर । दो आँखें ।
काली खिड़की से मैं पूरी तस्वीर ।
देखता हूँ । दो आँखें काली खिड़की से तस्वीर ।
लौट आए हैं
पानी के जहाज़ । अर्थात्,
वह मेरी ही प्रेयसी है, निस्तब्धता में
यात्रा ।
जहाँ से शुरू हुई थी यात्रा ।
अब भी हैं रहस्य मेरे लिए । रात के
बन्दरगाह ।

बन्द कमरे में । मेरा मौन । मेरी मृत्यु । अपरिचित
सागर के किनारे अपरिचित ।
रहस्यमय मेरे लिए —
शहर ।
दो आँखें ।
काली खिड़की से पूरी तस्वीर ।
यात्रा ।
वह मेरी ही प्रेयसी ।
बन्दरगाह ।
निस्तब्धता में टूटने लगा है समुद्र ।
अपने पितृ वृक्ष के नीचे
माधवी लता ।
वह चुपचाप रहस्य में खड़ी है, चुपचाप ।

समय : घायल पक्षी ।
अपने पिंजरे में छटपटाहट।
आदिम हवा क्यों अपने पँख फड़फड़ाती है।
समय : केवल अंग-संकेत
अपने पिंजरे में
भाषा मृत्युमुखी हो गई है,
किसके लिए ?

समय : जलते हुए मरुखण्ड पर अपरिचित
ध्वनियों की वर्षा ...
लौट आए हुए जहाज़
समुद्र
नीले दर्पण में मुखड़ा देखती हुई, आलस में
नदी
नंगी होकर नहाती हुई
किरनें
सात रंगों से बुना गया महाजाल
सुबह
प्रकृति अपने ही प्रारूप के विघटन से
ऋतु-चक्र ।
आदिम हवा फिर पँख फैलाती है। फिर
पँख फैलाती है।
आदिम हवा ...