विचारमग्न, उलझी छायाएँ / पाब्लो नेरूदा / अशोक पाण्डे
विचारमग्न, उलझी छायाएँ गहरे एकाकीपन में
तुम भी सुदूर हो, हर किसी से कहीं और दूर
विचारमग्न, मुक्त होती चिड़ियाँ, घुलती छवियाँ,
दफ़न होते दीए ।
कोहरों की मीनारें, कितनी दूर, ऊपर वहाँ !
दबी हुई रुलाइयाँ, धुंधली उम्मीदों को पीसती
ओ मितभाषी चक्कीवाली !
रात गिरती है तुम पर, शहर से दूर, तुम मुँह के बल ।
तुम्हारी उपस्थिति विदेशी है, किसी भी एक चीज़ की तरह मेरे लिए अजनबी ।
मैं सोचता हूँ, तुम्हारे सम्मुख मैं खोजता हूँ अपने जीवन के महान इलाके ।
मेरा जीवन किसी के भी सम्मुख, मेरा कठिन जीवन ।
एक चीख़ समुद्र के सामने, चट्टानों के बीच ।
समुद्र की बौछार में दौड़ती मुक्त, पागल ।
एक उदास गुस्सा, चीख़, समुद्र का अकेलापन
सिर से टकराता, हिंसक, आकाश की तरफ खिंचा हुआ ।
तुम, स्त्री, तुम थी वहाँ पर, कौन - सी किरन, उस विशाल पंखे
की कौन - सी अर्थहीनता ? तुम उतनी ही दूर थी जितनी अब हो ।
जंगल की आग ! नीली सलीबों में जलो ।
वह कड़कती हुई धराशायी होती है ! आग ! आग !
और मेरी आत्मा नाचती है, आग के कुन्तलों के साथ ।
कौन पुकारता है ? कौन - सी ख़ामोशी अनुगूँजों से भरी हुई ?
अवसाद का क्षण, प्रसन्नता का क्षण, अकेलेपन का क्षण ।
जो उन सबमें मेरा क्षण है !
शिकार का सींग जिससे गाती गुज़रती है हवा ।
रुदन की ऐसी भावना बंधी हुई मेरी देह में ।
सारी जड़ों का हिल उठना ।
सारी लहरों का आक्रमण !
मेरी आत्मा भटकती रही, प्रसन्न, उदास, अनन्त ।
विचारमग्न, दफ़नाती दीयों के गहरे एकाकीपन में
कौन हो तुम, कौन हो तुम ?
—
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक पाण्डे