विचार-पुरुष की सोच / श्रीनिवास श्रीकांत
बस्ती के जिन दालानों में
अब नहीं आती धूप
न जिन सीढ़ियों में सुनायी देती है
वे चिरपरिचित ध्वनियाँ
उन्हीं में कहीं अब अतीतमुखी
विचार-पुरुष खोजता है
अपने समय के खोये हुए सिक्के
जिन को बीन कर ले गयी होंगी
दुखों की मेहतरानियाँ
सिक्के हैं ये
दुखों के संगीत से ध्वनिमय
खनखनाते हैं जहन में
कभी खाना खाते
कभी पढ़ते किताब
और कभी गुजरते हुए पुरानी गलियों से
एकाएक बज उठते
विचार पुरूष के दिमागी बर्तन में
जिनको बजाते थे कभी, अनाथ बच्चे
अपनी अपनी गुल्लकों में
असमय बारिश में
नाचते / गाल बजाते
पुराने अहातों में था जो आकाश
चुरा ले गये उसे
नृशंस सिपहसालार
बेच दिया उसे सोने के भाव
और अनाथ बच्चों की जिन्दगियाँ
रख दीं उन्होंने
बड़ी कुशलता से गिरवी
तहखानाधारियों के पास
बहियों में दर्ज है जिनकी
उन्हीं को समझ आती लिपि में दर्ज
भुलाई गईं, कल के विचारों की सुर्खियाँ
अबके सत्ताधारियों ने मगर
बड़ी शातिरी से सील कर दिए हैं
अब वे सभी तहखानें
ओर जन-समुद्र में तैरने छोड़ दी हैं
अपने मन्सूबों की छोटी-बड़ी नावें
बड़े-बड़े मस्तूली जहाज भी
जिन्हें चला रहे
अड़ियल, साहसी मछुआरे
समुद्र के खिलाड़ी नाविक
अपनी चतुराई से नकेल देते जो
भंवरदार पानियों में बड़ी-बड़ी अमूल्य
तैरती मछलियाँ भी
कोठारों में अब
सड़ रहे हैं दिन
गन्धाती हैं रातें
अखबारों में छपते हैं
बहुरूपियों के व्यंग्यचित्र
सुर्खियां चिढ़ाती हैं
टेढ़ी बीनाई वाले सत्ताधारियों को
उठता है रोज-रोज
बदल-बदल कर पर्दा
देश के मंच पर
जनता के सामने
चरित्रांकित होते हैं दृश्य
खलनायकों
मसखरो
डुगडुगीबाज़ों के
कारनामों के साथ
जैसे किसी पश्चिमी महानगर पार्क में
दृश्यांकित हो रहा हो
बडे पर्दे पर कोई सिनेमा
देख रहे हों अपनी कारों से जिसे
सुख सुविधाभोगी शहरिए
व्यापारी
कारखानेदार
विलासी
तमाशबीन और जनता
गलियों में
अपने ईडियट बॉक्स पर
मगर हर सुबह
चीखते अख़बारों के बावजूद
कहीं कुछ नहीं होता
जैसे कहीं कुछ भी न घटा हो
वैसे ही
एक इंच और सरक जाता है
देश का इतिहास
बड़ा नेता आता है
धीरे-धीरे अपने घुटने संभाले
बैसाखियाँ लेने से है उसे गुरेज़
उसके पास हैं, कुछ न दिखायी देने वाली
गुप्त बैसाखियां
देती सहारा जो-हर अपंग घटना को
और कुछ स्ट्रेचर भी आते
ले जाते घटनाओं को
वक्त के अस्पतालों में
जहाँ वार्डों में पहले ही
कराह रहे होते हैं
देश के कुछ और बीमार मसले
जिनको दे दिया गया करार
कि वे हैं क्रॉनिक बीमार
इसलिए देते रहो ऑक्सीज़न
ताकि जी लें वे, कुछ देर और
डाक्टर भी क्या करें ?
अब वे भी हैं बीमार
करते करते उपचार
उन्हें भी हो गया है संसर्गजन्य रोग
बस्ती के जिन दालानों में
अब नहीं आती धूप
घुटनों पर कोहनियाँ टेक
सोचता है विचार-पुरुष
खोजता है अपने खोये हुए सिक्के
कालान्तर में हुए जो चलन से बाहर
अब तो नये नोटों में
पुराने पैगम्बरों की
छपती हैं आजादी की झलकियाँ
इतिहास से उठाकर
उन्हें कर दिया गया है
करेन्सी चौखटों में फिट
या बहुत कम खनखनाते
धातु के नये सिक्कों में।