विज्ञापनों को जिएँ या महंगाई / महेश सन्तोषी
इतनी महंगी तो नहीं बनीं थीं, अपने वक़्त की सरकारें
जितनी उनके देखते-देखते, महंगाई बढ़ गयी है!
कहते हैं सहस्रों हाथ होते हैं, सत्ताओं के
पर महंगाई के आगे, यहाँ तो सत्ताएँ ही हाथ जोड़े खड़ी हैं!
अखबारों के लम्बे-लम्बे क़द छोटे पड़ रहे हैं
सुशासनों क विज्ञापनों के लिए,
लोग समझ नहीं पा रहे हैं, इन विज्ञापनों को जिएँ
या फिर, बढ़ती महंगाई को जिएँ!
इधर, फासले बढ़ते जा रहे हैं
बुझे चूल्हों और महंगे होते जिन्सों के बीच,
उधर, नजदीकियाँ बढ़ती जा रही हैं
सुलगते धुओं, आग और चिनगारियों के बीच!
शायद ज़्यादा दिनों तक नहीं सोचेंगे लोग,
आँसुओं से अपने रसोई घर,
(सैकड़ों घरों में बड़े केक के पिरामिड; रोटियों को तरसते ये लाखों घर!)
जहाँ पर खत्म होता है इतिहास,
वहीं से फिर शुरू होता है,
इतिहास-वक़्त के पास हमेशा रहता है
हर इन्क़लाब का सही-सही हिसाब!