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विज्ञापनों में औरत / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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आजकल
बिना औरत के
कोई विज्ञापन नहीं होता
सच तो यह है
पहले औरत विज्ञापित होती है
बाद में या साथ में कोई चीज
एक चीज की तरह तो औरत
पहले भी विज्ञापित होती रही है
पर अब वह सिर्फ जिस्म की तरह
विज्ञापित हो रही है और
जिस्म की तरह ही लोगांे की आँखों में
स्थापित हो रही है
नजरों में, मन में, मानसिकता में
सिर्फ मांसलता ही मांसलता है
हर तरफ एक वक्त, हर स्क्रीन पर
लोगों को औरत का शरीर ही
दिखता है
एक बीमार समाज का विकृत सोच जब
सरेआम मांसल होकर प्रकाशित होता है
फिर जो हो रहा है, विज्ञापनों में वही होता है।