भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विज्ञापन-सुंदरियों से / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसलिए तो नहीं बचा के रखा ये क्षण
कि खरीद ले इन्हें कॉरपोरेट जगत चुपके से
देखो तो अपनी वस्तुओं की खातिर तुम्हारी सुंदरता सोखकर
रहने दिया तुम्हें मात्र उत्तेजक और टाँग दिया
इन विचार-शून्य क्षणों में।

अच्छा नहीं लगता था थरथराते कदमों से गुजरना तेरा
दीपक की लौ की तरह, हवा से डरते हुए
निऑन लाइटों की चपलता भर तो गई पैरों में तेरी
अब भी कोई और ही भर रहा है इनमें विद्युत-तरंग।
कोई और है जो तुम्हारी छवियों को जोड़ता-तोड़ता
डिजिटल इकाइयों में
बनाने के लिए चमकदार।

वो देखो, लड़की रोटी बनाना सीख रही है
कैसी फुलाई है पृथ्वी की तरह गोल रोटी
एक दिन रोटी उसे थका डालेगी और वो उदास हो जाएगी
नहीं दिख रही तो हटाओ अपनी आँखों की चमकीली पट्टी
और हर सको तो हरो उसके भविष्य की उदासी।

मुक्त तो हुई ऊखल1 से, मूसल1 से
पर मुक्त होओ इस विकराल ईश्वर1 से भी
घर से छूटकर बाजार पर मत लटको
तुम मुक्त होओगी तो मुक्त होंगी हमारी भी बहनें और बेटियाँ।

संदर्भ - 1. थेरि गाथा से ली गई अभिव्यक्तियाँ