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विज्ञापन / मिथिलेश श्रीवास्तव

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एक सुबह एक अख़बार के
एक पन्ने पर एक विज्ञापन था
जनता के पैसे से बने और उन दिनों बन्द पड़े
शहर के सबसे ऊँचे रेस्तराँ की नीलामी का ।
नीलामी के लिए ऊँची बोलियाँ आमन्त्रित थीं
लोकेशन का विवरण प्रमुखता से लिखा गया था

रेस्तराँ के आसपास संभ्रान्त लोग रहते हैं जो हमेशा
घर से बाहर खाना खाते हैं
बाहर सोते हैं उनकी चादरें उनके बढ़ते पैरों को हमेशा ढाँप लेती हैं
कहीं से दरकती नहीं
पड़ोस में रहने वालों के नाम और पते वे नहीं बता पाते
रेस्तराँ का रास्ता वे ठीक बताते हैं
उनके बच्चे जन्मदिन रेस्तराँ में मनाते हैं
उनकी ज़ुबान पर दुनिया के तमाम
आधुनिक और महँगे रेस्तराँओं के नाम हैं
सौ तक की अनिवार्य गिनती की संख्याओं की तरह ।

उनके पास अनेक एजेंसियों के क्रेडिट-कार्ड हैं
उधार खाना उनके लिए साख की बात है
सिर ऊँचा किए वे चलते हैं
वे रेस्तराँ के रास्ते से नहीं भटकते
भटके हुए भी अपने क्रेडिट-कार्डों के साथ
रास्ते पर लौट आते हैं जहाँ से रेस्तराँ की
शुरू होती हैं सीढ़ियाँ जिन पर धम-धम करते हुए
वे पहुँच जाते हैं
तहख़ाने के केबिनों और हवादार छत की टेबलों तक
जहाँ होती हैं धीमी रोशनी और दबी आवाज़
जहाँ होते हैं अन्धे और बहरे
जहाँ कोई नहीं पूछता साथ वाली औरत का रहस्य
जहाँ अँग्रेज़ी के व्याकरण का नहीं रहता आतंक

जहाँ दुनिया की ऊब की ओर खींचता नहीं
कोई आपका ध्यान
जहाँ कौर के साथ नहीं टटोलना पड़ता पर्स ।
 
सम्भ्रान्तों के बीच कुछ सम्भ्रान्त कवि
कलाकार गायक और नर्तक भी हैं
उनके पास भी हैं क्रेडिट-कार्ड
कुछ सम्भ्रान्त बनने की प्रक्रिया में हैं
वे बहुत जल्दी आ बसेंगे आसपास
बोरियतों और उदासियों को वे छोंड़ आएँगे
धीमी रोशनी और नैपकिनों से डरनेवाले
बेऔक़ात लोगों की दुनिया में ।