विडंबनाएँ / यतीश कुमार
प्यासे हैं कुएँ
अब उनमें किसी का
प्रतिबिम्ब नहीं उभरता
वह भी आत्महत्या कर रहा हैं !
लोहे में तब्दील हो रहा है साइकिल
पर यह यात्रा
घर वापसी की नहीं है !
घर के अंदर भी
“लोहा”अपनी जगह खोता जा रहा है
और अयस्क का निर्यात
अनवरत जारी है !
प्लास्टिक महावर को बदल देगा
मालूम पड़ता है
शक्ल और सीरत
दोनो बदले जा सकते हैं ?
आलता को भी बदल देंगे
जैसे बदला जा रहा है
मेहंदी को रसायन से
परंतु ख़ुशबू ?
ख़ुशबू तो मौलिक है ।
मौलिकता उस काग़ज़ की तरह है
जिसपर निब चला-चला कर
क़लम की परख की जाती है।
कट्टम -काटी अब सिर्फ़ खेल नहीं है
इसने कविताओं पर भी
क़लम चलानी शुरू कर दी है
और यूँ शब्दों की छटपटाहट
दबी रह गई ।
इन सभी दृश्यों के बीच
वर्षों पहले मर चुके
गज़राज का सिक्कड
आज भी
उसी पाए से बँधा है !
अंकुश आज भी जंग रहित है
और महावत की पीढ़ियाँ
रह-रह कर
निर्वात में
इंतज़ार की आँखे लिए
ताकती रहती हैं!