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विडंबना / केशव
Kavita Kosh से
मुझे झिंझोड़ा
अनगिनत प्रश्नों ने
पर उन्हें लिये साथ
गुज़रता रहा तमाम-तमाम
पतझर के पीले पत्तों से
ढके रास्तों पर
नहीं देखा मुझे किसी ने अविश्वास से
दौड़ता रहा मन एक साथ
रेगिस्तान और हरे जंगलों के विस्तार पर
मैं खुश हूँ
कि तमाम प्रश्नों के बावजूद
अँधे कुओं में झाँकते हुए
डर नहीं लगा मुझे
खिड़की से कूदते सूरज ने
मुझे आवाज़ नहीं दी
न भागती सड़क ने रुककर
कोशिश की मुझे देखने की
लेकिन घर में घुसते ही
किसी गुस्सैल नर्स की तरह
पूछता है कमरा
कौन हो तुम?
और अँधकार लड़खड़ाकर
मेरी बाँह थाम लेता है.