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विडंबना / नरेश अग्रवाल

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यह विडम्बना थी कि
इन सुंदर दृश्यों को छोडक़र
वापस मुझे आना होता था
मेरे ठहराव में उतनी गहराई नहीं थी
कि स्थापित कर लेता मैं वहीं, अपने आपको
केवल उनके रंगों से रंगता अपने आपको
और धीरे-धीरे वापस लौटने पर
चढ़ जाते थे इन पर, दूसरे ही रंग।
फिर भी मैंने कभी सोचा नहीं
एक जगह चुपचाप रहना ही अच्छा होगा
बल्कि फिर से तलाशी दूसरी धरती
और पाया ये भी वैसे ही हैं
पृथ्वी के रंगीन टुकड़े।
जीवन सभी जगह पर रह सकता था
क्या तो कठोरता में या क्या तो तरलता में
और जहां दोनों थे
वहीं अद्भुत दृश्य बन सके
और हमें दोनों से तादात्म्य बैठाना था।