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विडम्बना / कुमार कृष्ण

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हम चले गये एक बार
एक आदमी के साथ
सात समन्दर पार
बिक रही थीं वहाँ इस धरती के
सबसे अच्छे मनुष्य की कुछ चीज़ें-
उसका चश्मा
उसका पैन
उसकी घड़ी
उसके फटे हुए जूते
उसका पुराना कोट
हमने सोचा-
ले जाएँगे आज इसे हम अपने घर
पूरी दुनिया से कहेंगे-
हमारे पास हैं इस धरती के
सबसे अच्छे आदमी की चीज़ें
हमारी आँखों के सामने
देखते ही देखते
ले गया ख़रीद कर-
उन चीज़ों को
इस धरती का सबसे बुरा आदमी।
साज़िश

जितनी बार जाते रहे पिता हरिद्वार
लाते रहे खुदवाकर उतनी ही बार
पीतल के, कांसे के लोटों पर अपना नाम
बर्तनों को चमकाते-चमकाते
माँ ने गुज़ार दी पूरी उम्र
छोटे से चम्मच पर भी नहीं खुदा
कभी माँ का नाम

जानते थे पिता-
बहुत पुरानी है पुरुषों के नाम लिखवाने की
परम्परा
देख चुके थे बहुत बार पुराने बर्तनों पर
दादा -परदादा के नाम
पुश्त-दर-पुश्त जलते रहे
चूल्हे की आग पर
परिवार की तमाम औरतों के हाथ
औरतें रखती रहीं उपवास
माँगती रहीं ईश्वर से
पतियों की लम्बी उम्र
नहीं किया कोई उपवास पिता ने
कभी माँ के लिए
शामिल हूँ मैं भी कुछ हद तक
पिता की परंपरा में
लिखता हूँ तरह -तरह की कविताएँ
लगवाता हूँ अपने घर के दरवाज़े पर
अपने और अपने बेटों के नाम की तख़्ती।