विडम्बना / मृत्युंजय कुमार सिंह
ऊँची इमारतों के बीच
हरियाली की एक
उजड़ती-सी बस्ती में
कुछ पौधे हैं
जो अभी भी वृक्ष नहीं बने
एक ठूँठा वृक्ष है
जो अपने साथ लहराते
हरे पंखों से जड़े वृक्षों पर
अपनी श्रीहीन भुजाएं रखे
युगों से घटित
विडम्बना की करुण कथा
कहता रहता है;
थक जाता है
पर कहता रहता है।
वृक्ष जो अभी हरे हैं
और अभी भी अपने पैरों पर खड़े हैं
एक-दूसरे को बुला
अपने मांसल भुजाओं में सुला
हिला-हिलाकर, कुछ कहते हैं
शायद इस ठूँठ के बारे में,
या पास खड़े
निर्जीव मकानों के बारे में,
या फिर
अपने नीचे पलते
उन पौधों के बारे में
जिन्होंने अभी तक आकाश नहीं देखा।
भयभीत हैं मनुष्य के पदचापों से
सभ्यता के अभिशापों से
क्योंकि पदचापों में दिखते हैं इन्हें
झूलते हुए अस्त्र,
जिनसे इनके जड़ों की मिट्टी
उकेरी जाती है
और यह सुनिश्चित किया जाता है
की कितनी सटीक है वह जगह
खड़ी होने वाली
अगली इमारतों के लिए।
जड़ों का हिलना
या जड़ों से उखड़ जाना
कैसा लगता है
यह वही समझता है
जिसमें जीव हो, प्राण हो,
जीने का सम्मान हो।
फिर वो आदमी हो या पेड़
आम हो या रेड़
लहू तो हर जीव का बहता है;
और अपने कटे अंगों-प्रत्यंगों को
बेबस दृगों में समेटता
हर अपाहिज
अपने बच्चों से यही कहता है
की काश!
मैं तुम्हें बचा पाता
धूप घाव सेंक कर ढल जाती है,
सूरज शर्म से लाल हो कर
डूब जाता है
हवा आंसू सुखा जाती है
और मुँह सहला-सहला कर सो जाती है
बस एक उत्कच पीड़ा
रह-रह धमनियों में सिहरती है
कटा वृक्ष
किसी गाड़ी में लदकर चला जाता है
और लाशें एम्बुलेंस में
पोस्टमार्टम के लिए
खून धुल जाता है
और अपने शेष बचे तनों,
बिखरी टहनियों, और जड़ों को लिए
एक श्लथ चेतना
यह समझ जाती है
की अब
उसके अनाथ बच्चों की बारी है
कोई कुछ नहीं करता,
कोई कुछ कर भी नहीं सकता
सच,
अपने बच्चों को बचाना
और उन्हें जीना सिखाना
कितना कठिन है
कोई इस ठूँठ से पूछे,
जिसने इन बच्चों को बचाया था
साक्षी बनाया था
इस आज की व्यथा का
एक करुण कथा का
जो अब भी वह कहता रहता है;
थक जाता है
पर कहता रहता है।