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विडम्बना / सजीव सारथी
Kavita Kosh से
डरी सहमी ऑंखें,
चेहरे पर हताशा,
तन पर कपड़े नदारद,
घुटनों को छाती से चिपकाये,
बेडियों में जकड़ी काया,
शून्य को घूरती हुई,
कहीं कुछ ढूँढती है शायद,
निशब्दता में भी है कोलाहल,
ह्रदय में जारी है उम्र की कवायद,
मगज -एक मरघट हो जैसे,
कुछ चिताएँ जल रहीं हैं,
कुछ लाशें सडी हुई सी,
पडी हुईं हैं, जिन पर,
भिनभिनाती है मक्खियाँ,
जैसे - कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ,
कुछ अनुत्तरित सवालों का
समूह्गान जैसे,
कैसी विडम्बना है ये,
आखिर हम मुक्त क्यों नही हो पाते...???