भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विदाई / जितेन्द्र सोनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जा रही हूँ मैं
उस चूल्हे को छोड़कर
जिस पर पकती रोटियां खाकर
मैं बड़ी हुई
जा रही हूँ
वो आँगन छोड़कर
जिस पर मैं खेला करती थी
जा रही हूँ मैं
वो बिस्तर छोडकर
जिस पर मैं
सपनों की नींद लिया करती थी
जा रही हूँ
उन गुडिया वाले खिलौनों को छोड़कर
जिनसे मैं
अपना मन बहलाती थी
जा रही हूँ उन पौधों को छोडकर
जिन्हें मैंने प्यार से सींचा था
और अब
उन पर लगा पहला फूल
मेरे जाते ही मुरझा जाएगा
जा रही हूँ
अपने उस भाई को छोडकर
जो यूँ तो मुझसे लड़ता-झगड़ता रहता है
मगर दीदी कहकर
आख़िर मुझसे ही लिपटता है
जा रही हूँ अपने पिता को भी छोडकर
जिनकी अंगुली पकड़कर
मैंने चलना सीखा
जिनकी आँखें
पल भर मुझे न देखकर
बेचैन हो जाती थी
जिनकी छत्र छाया में
मेरी हर इच्छा पूरी हुई
जा रही हूँ अपनी माँ को भी छोडकर
जो कभी मेरी सहेली बनी
कभी मेरी अध्यापिका
जिन्होंने मुझे
उठना - बैठना ,
खाना - पीना सिखाया
जा रही हूँ सब को छोडकर
यूँ कि जैसे मेरा
उनसे कुछ नाता नहीं
मुझे पता है
मेरे जाने के बाद
घर का हर एक सूना कोना
दूसरे कोने को
सूना देखकर रोयेगा
मैं यह भी तो नहीं कह सकती
कि रोना नहीं
क्योंकि मैं ख़ुद भी तो रो रही हूँ
लाल जोड़े में लिपटी
रस्मों की डोर से बंधकर
मैं जा रही हूँ
क्योंकि मेरी विदाई हो रही है