विदा, नैमिषारण्य / राजेश्वर वशिष्ठ
नैमिषारण्य में ऋषि नहीं थे
वे ऋचाएँ भी नहीं थीं
जिन्हें कभी सुनाया गया था
समस्त जम्बू द्वीप से आए
अट्ठासी हज़ार ऋषियों को !
अब गेरुए कपडों में लपेट कर
शीशे की अल्मारियों में
रख दी गई हैं वे पुस्तकें
जिन्हें वेद, पुराण
और संहिताओं के नाम से जाना जाता है
अनेक विद्वानों ने कालान्तर में
जिन्हें संकलित किया
और गीताप्रेस गोरखपुर ने छापा
अब उन्हीं से सजे हैं
वेद मन्दिर और व्यास गद्दी !
यहाँ कुछ भी नहीं मिला वैसा ऐतिहासिक
जो कम से कम कुछ हज़ार वर्ष पीछे तो जाए
बस एक चक्रतीर्थ के जल-स्रोत को
आप चाहे जितना पुराना मान सकते हैं
फिर भी चकित कर देने वाली कथाएँ तो हैं!
इसी नैराश्य को मन पर लादें
हम सोच रहे थे उस आस्था के बारे में
जिसे लेकर आज भी
यहाँ कितने ही लोग करते हैं
चौरासी कोस की परिक्रमा
यह निश्चित करते हुए
कि इस परिक्रमा के बीच का क्षेत्र ही
रहा होगा समस्त श्रुतियों के
गुंजरित होने का पुण्यक्षेत्र,
जहाँ बचे खुचे अरण्यों पर
व्यावसायिकता की खाद से
आज भी आस्था की फ़सल लहलहाती है!
मैं जानता हूँ,
मैं आस्था या विश्वास के बल पर
मोक्ष की कामना लिए नहीं आया यहाँ,
मुझे तो एक खोजी का मन ले आया यहाँ;
पर नतमस्तक हूँ उन देशवासियों के प्रति
जिनका विश्वास ही आज तक पोषण कर रहा है
मानव सभ्यता के प्राचीनतम धर्म,
सनातन धर्म का !
इसीलिए देश के हर हिस्से से
यहाँ वर्ष भर आते हैं लोग
इस संकल्प को पूरा करने के लिए,
एकदा नैमीषारण्ये !