भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विदा किया / गगन गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विदा किया दोस्त को उसने उसके शहर
थोड़ा-सा रखा अपने लिए बचाकर

थोड़ा-सा बचाया अपने कमरे के खालीपन में
थोड़ा-सा बचाया अपने कानों की सांय-सांय में
छाया-भर बचाया भटकते खयालों में
साथ-साथ चलने को

जाने दिया उसने उसके भीतर के पिता को, प्रेमी को
जाने दिया उसके भीतर के दोस्तबाज़ को, दारूखोर को-
ख़ामोश था जो बहुत उसमें
बचाकर रखा अपने पास
गुपचुप बाते करने को!

जी भरकर चली फिर वह
बेदोस्त सड़कों पर,
जी भरकर गुजरी फिर वह
धुन्धभरी शामो से,
जी भरकर सेंकी उसने गुनगुनी धूप
फैलाकर उसका खयाल

खयालों में उससे शिकायतें की
जमाने – भर की उसने,
खयालों में उससे लड़ी बेवजह
कितनी ही बार, यूँ ही,
रोते-रोते चुप हुई
कितनी ही बार
अपने आप
बैठकर ख्यालों में
उसके पास

नही लिखा तो बस उसे
एक खत नहीं लिखा,
नहीं कहा उससे तो बस
यही नहीं कहा
कि बचाकर रख लिया था उसे
दोस्ती कि तिलिस्म में
थोड़ा सा

होने दिया परेशान उसे
बेवजह दूसरे शहर में,
सूखने दिया लहू उसका
बेसिर-पैर अपनी चुप्पी से

बदला लिया इस तरह उसने
उसके भीतर के पिता से, प्रेमी से
दोस्तबाज़, दारूखोर से-
बदला लिया इस तरह उसने उसके
मन के हर उस कोने से
जहां वह नही थी

विदा किया दोस्त को उसने
थोड़ा-सा रखा अपने लिए बचाकर.